Holi Par Kavita |
होली पर कविता। Holi Par Kavita
रंगों का है आज त्योहार
मगर मैं बेरंग हूँ
था एक टाइम मैं भी खुश होता था
बैठ पापा के कंधे सबको रंग लगाता था
जब से तुम दूर चले गए पापा
मेरी ज़िंदगी के सारे रंग चले गए पापा
पापा तुम फिर वापिस आओ ना
रंग गुलाल लाओ ना
भर पिचकारी पानी की
मैं आपके संग खेलूँगा
बचपन की वो सारी यादें
फिर से मैं जिलूँगा
झूट मूठ की डाँट आप लगाओ ना
पापा तुम फिर वापिस आओ ना
दूर चले गए पापा क्यूँ तुम
क्या तुमको मेरी याद नही आती
इस मासूम से बच्चे की
क्या तुमको शरारतें नही सताती
कितना निर्दयी है भगवान
एक बच्चे से पिता का साया छिन लिया
ख़ुशियों के दिनों में भगवन
दुःखों का है तोहफ़ा दिया
सारी दुनिया आज ख़ुशी मनाये
रंग बिरेंगे गुलाल उड़ाये
रंगों का है आज त्योहार
मगर मैं बेरंग हूँ ।
घर के कोने में बैठा
पापा की यादों के संग हूँ
रंगो का है आज त्योहार
मगर मैं बेरंग हूँ
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कवि द्वारा इस कविता को पूर्ण रूप से स्वयं का बताया गया है। ओर हमारे पास इसके पुक्ते रिकॉर्ड्स है। कवि ने स्वयं माना है यह कविता उन्होंने किसी ओर वेबसाइट पर प्रकाशित नहीं करवाई है।
कवि – विक्रमादित्य
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