संस्कृति पर कविता
संस्कृति पर कविता
नवीनता सदैव सहगामिनी रही है प्रकृति की,
नवीनता सदैव आकर्षित करती रही है मानव प्रकृति को भी,
आवश्यक है यह जीवन की
गतिशीलता के लिए भी,
अभाव में इसके अवरुद्ध हो जाते हैं सभी मार्ग भी,
अभाव में इसके क्षीण हो जाती है जीवन शक्ति,
परिवर्तन तो प्रकृति की प्रकृति है,
नित्य नवीन फूलों से करती है अपना श्रृंगार,
सबको चैतन्य करने हेतु सूर्य अपनी किरनों को देता विस्तार,
नई संजीवनी शक्ति से वायु करती जीवों में प्राणों का संचार,
अनित्य जगत की नित्यता का यही रहस्य है,
लेकिन कर्म प्रवाह में परिवर्तन सदैव ग्राह्य होता नहीं,
पुरातन होने से सबकुछ त्याज्य होता नहीं,
नवीन होने से सबकुछ ग्राह्य होता नहीं,
प्राचीनता और नवीनता का चयन विवेक के बिना होता नहीं,
विवेक है निर्णायक इसका, क्या करणीय क्या श्रवणीय और क्या दर्शनीय है,
प्रभावित होती है इससे राष्ट्र संस्कृति भी,
सामाजिक कोशिकाओं में व्याप्त होती हैं मान्यताएँ और हमारी संस्कृति ही,
प्रवाहित होती है नाडिय़ों में प्राण बनकर हमारी संस्कृति,
अपनी प्राचीनता और वैज्ञानिकता की सुगंध से आकर्षित करती और निकट आ जाती है विश्व संस्कृति भी !!
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कवि द्वारा इस कविता को पूर्ण रूप से स्वयं का बताया गया है। ओर हमारे पास इसके पुक्ते रिकॉर्ड्स है। कवि ने स्वयं माना है यह कविता उन्होंने किसी ओर वेबसाइट पर प्रकाशित नहीं करवाई है।
लेखक: डॉ मनोरमा सिंह
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