समय की गति कविता |
समय की गति कविता | Samay ki gati kavita
समय की धुरी ,बड़ी निराली
चलती धीमी धीमी सी
कब अपनो से अलग हो जाए
बात पता नही पूरी सी।।
पास थे कल हम,आज दूर है
समय के आगे,सब मजबूर है
कोई कर ना सके ,उपाय भी इसका
समय है राजा, इसकी चलती
इसके उलट सब मजदूर है
पल पल बिता जाएं समय ये
रोकने ने वाला, बहुत दूर है
खंडहर आज है,कल जो महल थे
राजा, रानी, दास टहलते
घूमी जो धुरी समय की ऐसी
वो पड़े कब्र में ,अब कहां टहलते?
ये पल दो पल का गाना है
मिलना मिलाना बहाना है
फिर वापस दूर ,हमे जाना है
फिर वापस कभी न आना है।।
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कवि द्वारा इस कविता को पूर्ण रूप से स्वयं का बताया गया है। ओर हमारे पास इसके पुक्ते रिकॉर्ड्स है। कवि ने स्वयं माना है यह कविता उन्होंने किसी ओर वेबसाइट पर प्रकाशित नहीं करवाई है।
लेखक: राजेंद्र कुमार
नगवाडा,कुचामन सिटी(नागौर)राजस्थान
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