महादेव
सावन का महीना आया,
महादेव का कण-कण में है समाया
भक्ति और प्रेम की फैली है माया,
महादेव को तो एक लोटा
जल भी भाया,
हर माया-मोह से मुक्त है भोले-भंडारी,
यही संदेश हरी-हरी बेलपत में सबने पाया।
जटा विराजे गंग की धारा,
मस्तक भस्म रमाए हैं,
हाथ त्रिशूल, डमरु सोहै,
गले में पहने सर्पों की माला
महादेव कहलाएँ हैं
में पहने बाघम्बर,
कमर में भस्म रमाए,
गौरापति कहलाएँ हैं।
शिव, शंकर, त्रिपुरारि इनकी महिमा अद्भुत है,
काल को भी ये धूल चटाएँ,
महाकाल कहलाएँ हैं।
,पैर खाभाऊँ जमाए हैं, अंग-अंग
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कवयित्री द्वारा इस कविता को पूर्ण रूप से स्वयं का बताया गया है। ओर हमारे पास इसके पुक्ते रिकॉर्ड्स है। कवयित्री ने स्वयं माना है यह कविता उन्होंने किसी ओर वेबसाइट पर प्रकाशित नहीं करवाई है।
गौरी मिश्रा पुत्री ( गणेश शंकर मिश्रा )
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