खता-कार हुये जो मुहब्बत की बात करते है…
खता-कार हुये जो मुहब्बत की बात करते है
किसी की जान भी जाये कहां ये लोग ड़रते है I
तमाशा वो दिखाकर होश उड़ाकर गये देखो
तरस हम खा गये उनपर हमें नादां समझते है I
दिखे जो आइना सूरत खुद अपना छुपाते है
बुझाकर वो चिरागों को सजते है सवरते है I
उतर आये जमीं पर देखकर उनको सितारे जो
चमन रोशन हुए उनके हमें ये रात डसते है I
हमारी देखकर तस्वीर दुनिया खूब हँसती है
जुदा कैसे करे कोई सदा जो पास रहते है I
कभी आगे कभी पीछे रहे वो साथ अपने है
छुड़ाकर हाथ भागे जब ठंडी आह भरते है I
हुआ है सामना जब से सताये रात ये सारी
दिये की लौ बुझाकर हम सारी रात जगते है I
बदल जाये अभी मौसम दिखाकर एक झलक देखो
मिलाकर नैन अब उनसे यहां सूरज निकलते है
करे सच झूठ को वो फ़ैसला ऊँगली दबाकर
पता जो पूछकर दिल में हमारे वो उतरते हैi
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कवि द्वारा इस कविता को पूर्ण रूप से स्वयं का बताया गया है। ओर हमारे पास इसके पुक्ते रिकॉर्ड्स है। कवि ने स्वयं माना है यह कविता उन्होंने किसी ओर वेबसाइट पर प्रकाशित नहीं करवाई है।
लेखक: राकेश मौर्य
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