कविता : हम दीवाने परवानों के…
हम दीवाने परवानों के
महकी बस्ती में रहते हैं
ना जाने कब हम उठ जाएं
उठ करके धूम मचा दे हम
ना जाने कब हम सो जाएं
सो करके आज मिटा दे हम
जंगल में जो यह आग लगी
इसमें जल करके खाक हुए
आसानी से बन मिट्टी के
मिट बन हम राख हुए
कुछ गलत लिखा कुछ गलत पढा
कुछ गलती से ही गलत हुआ
उस गलती के गलियारे में
डूबी कश्ती में बैठे हैं
हम दीवाने परवानों क
महकी बस्ती में रहते हैं
कवि द्वारा इस गीत को पूर्ण रूप से स्वयं का बताया गया है। ओर हमारे पास इसके पुक्ते रिकॉर्ड्स है। कवि ने स्वयं माना है यह कविता उन्होंने किसी ओर वेबसाइट पर प्रकाशित नहीं करवाई है।
Name : प्रशांत मिश्रा
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