हम कविता | Hum kavita
हम में,हिम्मत है उजियाले हैं
भले हम अंधियारों के पाले हैं
क्या फर्क पड़ता है कि
हम गोरे हैं कि काले हैं
हम में तो मशाले जलती हैं
हम से ही चितौड़ी धराएं बोलती हैं
हम से ही पर्वतों के सीने दहकते हैं
हम से ही तो बंजर बाग महकते हैं
हम कब किसी के टाले टले हैं
जब भी जिससे मिले सिद्दत से मिले हैं
हो लिए हम उसी के जो हो लिया हमारा है
चल दिए उसी राह पर जिधर चल दिया फ़साना है
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कवि द्वारा इस कविता को पूर्ण रूप से स्वयं का बताया गया है। ओर हमारे पास इसके पुक्ते रिकॉर्ड्स है। कवि ने स्वयं माना है यह कविता उन्होंने किसी ओर वेबसाइट पर प्रकाशित नहीं करवाई है।
लेखक: अभिषेक कुमार
(लुधियाना,पंजाब)
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