ग़ज़ल- सच्चाई से डरे
वक़्त हो अपना बुरा जब तो भलाई से डरे
जहाँ बसेरा हो झूठो का वहाँ सच्चाई से डरे I
हो बुरो की संगते उनसे रहे दूर सदा
साथ ऐसो का अगर हो तो अच्छाई से डरे I
बात सोच समझ कर जो लोग करते ही नहीं
चार लोगो में खुद की जग हँसाई से डरे I
कौन रातो में मुझे आवाज देकर हँस रहा
खौफ उनका था मगर अपनी परछाई से डरे I
जाम आँखों के पिये हुस्न निकला कातिल
देख मय-खाना तन्हा हम तो बुराई से डरे I
है मोहब्बत मै हद से भी गुजर जाऊँ मगर
बेवफा हो यार उसकी बेवफाई से डरे I
ठोकरे खाई जब से प्यार में धोखे मिले
क्यों न रोये हम तुम्हारी रुसवाई से डरे I
ना खरी धन दौलत न प्यार अपनों का मिला
चैन मिलता कहाँ अवैध धन कमाई से डरे I
दो दिलों के बीच ‘ शशि ‘ होते नहीं है फासले
राह उल्फत में हर कदम जुदाई से डरे I
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कवि द्वारा इस कविता को पूर्ण रूप से स्वयं का बताया गया है। ओर हमारे पास इसके पुक्ते रिकॉर्ड्स है। कवि ने स्वयं माना है यह कविता उन्होंने किसी ओर वेबसाइट पर प्रकाशित नहीं करवाई है।
लेखक: राकेश मौर्य
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