संभल कर कदम बढ़ाना है कविता | sambhal kar kadam badhana hen

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sambhal kar kadam badhana hen

संभल कर कदम बढ़ाना है – 

धीरे धीरे वक़्त की रफ़्तार बदल रही है
काँटों की डगर संभल कर कदम बढ़ाना है I

सड़को पे रहे या गलियों  मे गम ही गम देखे
हाल-ए-दिल किस से कहे मतलबी जमाना है I

बुझ गये दिये जिसकी राहों से वो क्या करे
रौशनी के लिए उसे दिल को जलाना  है I

मुझे किसी की हमदर्दी  नहीं चाहिए 
यहाँजख्म-ये-दिल गैरो को अब नहीं दिखाना है I

शिकायत उनको कभी मुस्कुराते नहीं है
दर्दे दिल छलके न कभी इसे बचाना है I

उसके कदमो के निशाँ दिल पे उभर आया है
उसकी सूरत दिल के आईने में बसाना है I

दूर मंजिल है हौसला मत खोना समझे यहाँ
इन्ही रहो में अपना भी कही ठिकाना है I 

दम घुट रहा इस बेबशी के आलम में 
जो ‘ शशि ‘खोल दे जुल्फ इन्हें सावन सा लहराना है I

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कवि द्वारा इस कविता को पूर्ण रूप से स्वयं का बताया गया है। ओर हमारे पास इसके पुक्ते रिकॉर्ड्स है। कवि ने स्वयं माना है यह कविता उन्होंने किसी ओर वेबसाइट पर प्रकाशित नहीं करवाई है।

लेखक:  राकेश मौर्य

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