वापसी कविता… |
वापसी कविता…
हो रहा अंधकार मय यहां सब,
छिपा लिया बादल ने कम्बल में सब
सूर्य और चंद्र दोनों से वांछित हैं सब,
लग रहा न है यहां अब कुछ।
निकली एक किरण सूर्य की,
हो गया जगमग सूर्य के तेज से सब
शीतलता की थी अब बारी वह भी,
आ गई अब हो गया खुशहाल सब।
जो थी निराशा छुपी हुई,
वह अब दूर हो गई है,
वक्त के थपेड़ों में जो खो गया था ,
वह विश्वास अब वापस आ गया है।
विरागी जितने भी राग थे पहले,
वह सब अब अनुरागी हो गए हैं,
पत्ते जो पतझड़ में नाराज थे
वह बारिश में खुशियां मना रहे हैं।
जमी थी जो पुस्तकों पर धूल,
वह अब हटा दी गई है,
विचार जो साकारात्मिक कैद थे
वह आजाद कर दिए गए हैं
जो मैं रूठा था खुद से,
उस मैं को मैने माना लिया है,
जो थे अधूरे सपने मेरे,
उन्हें साकार करने को ठाना है।
छोड़ा है मैने अब इस दुनिया को,
अपनी दुनिया में अब जाना है,
खुद से प्यार दुलार करना है,
अपना नया जीवन बनाना है।
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कवि द्वारा इस कविता को पूर्ण रूप से स्वयं का बताया गया है। ओर हमारे पास इसके पुक्ते रिकॉर्ड्स है। कवि ने स्वयं माना है यह कविता उन्होंने किसी ओर वेबसाइट पर प्रकाशित नहीं करवाई है।
लेखक: अनुराग उपाध्याय ।
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