युद्ध पर कविता- समर व्यथा | Yudha par kavita
यह युद्ध भी अचानक नहीं हुआ
स्वार्थ इसमें भी था, तभी तो इतना भयानक हुआ
भय और व्याकुलता के बीच वीर लड़ते रहे
पक्ष- विपक्ष और जीत की चाहत में आगे बढते रहे
ऐसी युद्ध में कई अनगिनत रोने की आवाज आ रही थी
ऐसी घड़ी में वो बिजली की तरह चमचमा रही थी
माना मौत का खौफ भी न था उसके मन में
वो सिंहनी की तरह आगे बढ़ रही थी उसके दल-बल में
दो गुटो में यु आमना-सामना हुआ
उस शेरनी का एक सिपाही के साथ सामना हुआ
दो बीज लेकर आयी थी आज अपने देश को बचाने के लिए
यह मां का आंचल भी ले ले, आयी हु तेरे को सुलाने के लिए
वह सिपाही भी क्षोभ से पीड़ित था कोनसी घड़ी आ गई
पीड़ित मन भी एक नई व्यथा सी छा गई
विवशता ओर व्याकुलता में नई द्वंद्व सी छा गई
देखते ही देखते अश्रु की बाढ़ आ गई
एक तरफ कर्ण था,मानो दूसरी तरफ माँ कुंती आ गई
आओ आज उस युद्ध को रोको, जहाँ नई कालिख सी छा ग ई
यूँ कागज की कुछ लकीरों पर इतिहास के पन्ने भी रो देते हैं
जहाँ माँ मर गई, ममता सो गई, मानवता को खो देते हैं
जहाँ अगर इतिहास कलंक, वर्तमान पतंग, एवं भविष्य में तिमिर सा छा जाता है
आओ आज उस युद्ध को रोको , जहाँ मानव, मानव का भक्षक बन जाता है
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कवि द्वारा इस कविता को पूर्ण रूप से स्वयं का बताया गया है। ओर हमारे पास इसके पुक्ते रिकॉर्ड्स है। कवि ने स्वयं माना है यह कविता उन्होंने किसी ओर वेबसाइट पर प्रकाशित नहीं करवाई है।
लेखक: विश्राम राठौड़
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