मूर्तिकार पर कविता
मूर्तिकार पर कविता। Murtikar par kavita
पाषाणों में प्राण डालता,
धरे हाथ हथियार यह बैठा।
देखो कौन मूर्तिकार,
इसमें है सृजन-शक्ति देखो ।
बनाता वह किस तरह बाल-गोपाल,
यह देखो बैठा मूर्तिकार ।
अकेले देखता बैठे सबका व्यवहार,
फिर लेता एक पाषाण,
देता धीमी चोट उसे वह बार-बार,
पत्थर से शंकर बनाता मूर्तिकार।
ब्रह्मा भी जिनको नहीं बचाते,
वही बचा रहे अब ब्रह्मा,
जो बने थे जीवन के सर्जक,
उन्हें गढ़ता यह मूर्तिकार।
सिर्फ मूर्ति ही नही एक शेष,
दिखलाता मूर्ति में चमत्कार ।
लिए पैरों के तले पत्थर,
जो मंदिर का है शंकर।
जब वो जाता होगा मंदिर,
क्या होते होंगे उसके विचार।
है यह सार्थक मूर्तिकार,
बैठा मूर्ति के पास।
सोच रहा होगा की ब्रम्हा सोचता क्या होगा?
उसकी बनाई सार्थक या मेरी बनाई?
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कवि द्वारा इस कविता को पूर्ण रूप से स्वयं का बताया गया है। ओर हमारे पास इसके पुक्ते रिकॉर्ड्स है। कवि ने स्वयं माना है यह कविता उन्होंने किसी ओर वेबसाइट पर प्रकाशित नहीं करवाई है।
लेखक: सुदीप यादवस्नातकोत्तर, हिन्दी विभागकेंद्रीय तमिलनाडु विश्वविद्यालय
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