मानव जीवन पर कविता | Manav jivan par kavita

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Manav jivan par kavita
मानव जीवन पर कविता


मानव जीवन पर कविता-  मै भी इंसान हूं

इस धरा की जननी ने
कीड़े मकोड़े बनाए, पंछी बनाए,
जानवर बनाए,बनाए लाखों जीव
फिर प्रकृति से भूल हुई
भारी भूल हुई
एक औरत बनाई, एक पुरुष बनाया
फिर जो कुछ भी बनाया था
दोनों ने मिलकर सबको धूल बनाया
जनसंख्या बढ़ाई ,देश बनाया
धर्म बनाए,मजहब बनाए
जात बनाई,उपजात बनाई
आपस में बंटते चले गए
अपनो से लड़ते चले गए

कुत्ता अब भी कुत्ता
घोड़ा अब भी घोड़ा
इस दुनिया के सारे जीव पहले जैसे है
फिर इंसान कहां ये खो गया
क्या इनकी अपनी बुद्धि ही श्राप बनी है
हथियार बनाए,बम बनाए
प्रथम,द्वितीय विश्वयुद्ध किया
हिरोशिमा को नपुंसक किया
न धरती छोड़ा,न आकाश छोड़ा
जहां देखो वहीं है कचड़ा किया
पर्वतों,पहाड़ों को कुचल दिया,कुचल रहा है
जब तक रहेगा कुचलता रहेगा
सगरों,नदियों,झीलों में पेट्रोल छोड़ा,
रसायन छोड़ा,मलमूत्र छोड़ रहा है
अंत,ये अंत क्यों नहीं आता
कब आयेगा अंत?

प्रेम,काम,क्रोध,डर,अनुशासन,स्पर्धा,
जैसे लक्षणों के वस में आकर
पुरुषों में अपने लिए अलग काम
और महिलाओं के लिए चूल्हा चौका,
बर्तन,झाड़ू पोछा बनाया
अनाज उगाया,सिक्के बनाए,व्यापार बनाया
इतिहास में लाखो करोड़ो लाशों,मांस के लोथडों
को रौंदते हुए,
वैश्याओ के नंगे बदन को चाटते,खाते
और काटते हुए अपना साम्राज्य बनाया
फिर स्त्रियां उठ खड़ी हुई और
इतने शोर के साथ की उनकी 
आवाज के सामने सारी ध्वनियां शून्य हो गई
पुरुषों को अपने अंगुलियों पर नचाना शुरू किया
पुरुष काममुग्ध हो हां में हां कहता चला
इतिहास के पन्ने पटते चले गए 
ऐसी ही वीभत्स कहानियों से 
स्त्री और पुरुष,पुरुष और स्त्री
देखो देखो सुनो सुनो
कौन किसको काट रहा है
कौन किसको मार रहा है
वीभत्स वीभत्स, डरावना डरावना

कौन कहे भगवान ने बनाया हमको
या हमने भगवान को बनाया है
स्पर्धा है, घोर स्पर्धा
इंसानों इंसानों के बीच
भगवान भगवान के बीच
इंसान भगवान के बीच
होड़ है महान बनने की
काबू पाने की,खुद पर नहीं औरों पर
पाखंड करके,पूजापाठ करके
सब को वस में कर लो
बताओ इनको, डराओ इनको
हमारा ईश्वर महान है
नहीं नहीं हमारा ईश्वर महान है
अरे नहीं इनका ईश्वर चोर है
हमारा खुदा महान है
क्या बकवास है यीशु महान है
कहो इनसे नर्क में जलेंगे
जन्मो जन्म तक भटकेंगे
आओ धर्मांतरण करो,
आओ,आओ,आओ….

एक और गलती हुई प्रकृति से
इंसानों में भूख बनाई,पेट बनाया
सब खा रहा है खाता ही जा रहा है
मांस,मदिरा,ड्रग्स,अपना खाना,जानवरों का खाना,
रिश्ते नाते,अपने पराए,धरती,आकाश,पाताल
ग्रह,नक्षत्र,सब,सब,सब….
जो दिखता है वो भी
जो नहीं दिखता है वो भी
खा रहा है,सब खा रहा है
कितना खाता है, खाता ही जा रहा है
इसका पेट है या ब्लैक होल
इनकी क्षुधा है कि शांत नहीं होती
तृप्ति नहीं मिलती इनकी भूख को
जो समा गया इसमें लौटा नहीं
बचो,बचो,बचो इनसे, ये इंसान है
मै भी इंसान हूं
मुझसे भी बचो
भाग जाओ,दूर भाग जाओ मुझसे
मै अंत हूं इस पृथ्वी का,
मै भी इंसान हूं।

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कवि द्वारा इस कविता को पूर्ण रूप से स्वयं का बताया गया है। ओर हमारे पास इसके पुक्ते रिकॉर्ड्स है। कवि ने स्वयं माना है यह कविता उन्होंने किसी ओर वेबसाइट पर प्रकाशित नहीं करवाई है।

लेखक:   धीरज”प्रीतो”

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