मंजिल पर कविता |
मंजिल पर कविता
कहाँ हम कभी मंजिल पर रुक पाते हैं,
मकाम आते ही नए कूच पर लग जाते हैं.
ये दर-बदारी अब तो मुक्कदर ठहरी,
कहीं सुबह और कहीं शाम कर जाते हैं.
डर बस लगता है तो अपने ही अक्स से,
किसी सितमगर से कहाँ खौफ़ खाते हैं.
तलाश-ए-मंजिल ले जाती है दूर तक,
उम्मीद के बोझ तले दब जाते हैं.
थकन और मायूसी तो गुनाह लगती है,
परिंदे जब उड़ान का स्वाद चख जाते हैं.
जिंदगी की तपिश जब बदन चूर करती है,
रात को समझ कर बाहें तेरी आराम फरमाते हैं.
———————-
कवि द्वारा इस कविता को पूर्ण रूप से स्वयं का बताया गया है। ओर हमारे पास इसके पुक्ते रिकॉर्ड्स है। कवि ने स्वयं माना है यह कविता उन्होंने किसी ओर वेबसाइट पर प्रकाशित नहीं करवाई है।
रचियता- ललित सोनी
इन कविता के बारे में अपने विचार comment करके हमें ज़रूर बताएं और अपने साथियों तक इसे अवश्य पहुंचाए ।
और हिंदी अंश को विजिट करते रहें।
_________________
अपनी कविता प्रकाशित करवाएं
Mail us on – Hindiansh@gmail.com
अनुठे शब्द लिखे हैं। लय बहुत अच्छा है। बधाईयां!