नैराश्य

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नैराश्य

कई कोशिशें की मैंने
हार मगर मिल जाती है 
कितनी ही ठोकर खाई है 
हिम्मत  टूटती  जाती है
राह नहीं कोई दिखती 
चाहत भी अधूरी रहती है 
ख्वाहिशों का मेरा आसमां 
सपने सा टूटता जाता है 
मिलती नहीं कोई राह मुझे 
मंजिल तक मैं क्या पहुंचूगी 
राहों में इतने धोखे हैं
कांटों से भरी 
मंजिल है मेरी 
नैराश्य सिर्फ है जीवन में
जैस कोई पतंगा 
बाती से जल जाता है 
मिट गए हैं हम
और बर्बाद भी 
हिम्मत के पांव तले 
अब सांस ही बाकी है 
जैसे मरने से पहले 
सब अधमरे हो जाते हैं

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कवयित्री द्वारा इस कविता को पूर्ण रूप से स्वयं का बताया गया है। ओर हमारे पास इसके पुक्ते रिकॉर्ड्स है। कवयित्री ने स्वयं माना है यह कविता उन्होंने किसी ओर वेबसाइट पर प्रकाशित नहीं करवाई है।

कवयित्री: दिव्या शुक्ला

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