गज़ल
अपनों का गैर से लगाव देखे
सफर में ऐसे कई पड़ाव देखे I
जिंदगी है खुबसूरत समझते थे
दर्द होठों पर दिलों में घाव देखे I
जिस तरफ रुख हो हवा का उधर जाये
आग, पानी की तरफ झुकाव देखे I
आज है वीरान कल थी बस्तियां जहाँ
छत नहीं सर पर, जहाँ वहाँ छाँव देखे I
लाख करते सितम, डरता कौन यहाँ
दोस्त दुश्मन सबका जमाव देखे I
दर्द दिल में जो उठा उनको खबर कहाँ
इश्क का सदियों रहा अभाव देखे I
आग हर दिल में दहकते है जहाँ पर
गैर का करते उन्हें बचाव देखे I
दूर दूर तक नहीं गम का निशान
मुस्कुराते लोग जहाँ वो गाँव देखे I
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कवि द्वारा इस कविता को पूर्ण रूप से स्वयं का बताया गया है। ओर हमारे पास इसके पुक्ते रिकॉर्ड्स है। कवि ने स्वयं माना है यह कविता उन्होंने किसी ओर वेबसाइट पर प्रकाशित नहीं करवाई है।
लेखक: राकेश मौर्य
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