कविता – वह खेत मेरा | Vah Khet Mera Kavita

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khet par kavita


वह खेत मेरा

पूर्वजों की जोती हुयी जमीन
जिसके कण-कण से पला है–मेरा परिवार
जिसकी भौगोलिक नाप से मन में वजन का संचार होता रहा है 
वह खेत मेरा नही रहा —
गृहस्थ जीवन और परम्परा की बोझ ने सब निगल ली है 
पगडंडियों की पीठ पर बैठना और मचल के आत्ममुग्ध होना—
खेत का मालिक होने सा अभिमान 
सब टूट गया —
ना खेत बच पाया 
ना फसल बच पायी
बची है पूर्वजों की हस्ती
इसे बचा के रखने में कितनी नस्लें तबाह होंगी 
अनवरत् चलता रहेगा !
वह खेत मेरा

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कवि द्वारा इस कविता को पूर्ण रूप से स्वयं का बताया गया है। ओर हमारे पास इसके पुक्ते रिकॉर्ड्स है। कवि ने स्वयं माना है यह कविता उन्होंने किसी ओर वेबसाइट पर प्रकाशित नहीं करवाई है।

लेखक:  विक्रांत कुमार 

बेगूसराय (बिहार)

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