कविता- मैं खुद को खोया हुआ
मैं जब भी पीछे मुड़ के देखता हूँ
मैं पाता हूँ खुद को खोया हुआ
तुम्हे पाने की जहमत ने मुझे
कर दिया हो जैसे खुद से अलग
नही मिलती मुझे कोई पंक्ति
जो तुमसे हटकर हो मैने रची
इस धरा के आरम्भ के वक्त से
क्या ईश्वर ने नही कुछ बेहतर रचा
जिसकी अभिलाषा हो इतनी प्रबल
संभवतः मैं दूँ उसमे तुमको भुला
पर क्यों है ये भृम इतना यकीनी
और है सांसों की माला से बँधा
तुमको भुलाने की कोशिश में मैं
देना क्यों चाहता हूँ खुदको भुला
मैं खोज नही पाता खुदको जहां
देखने पर मैं पाता हूँ तुमको वहाँ।
मैं पाता हूँ खुद को खोया हुआ
तुम्हे पाने की जहमत ने मुझे
कर दिया हो जैसे खुद से अलग
नही मिलती मुझे कोई पंक्ति
जो तुमसे हटकर हो मैने रची
इस धरा के आरम्भ के वक्त से
क्या ईश्वर ने नही कुछ बेहतर रचा
जिसकी अभिलाषा हो इतनी प्रबल
संभवतः मैं दूँ उसमे तुमको भुला
पर क्यों है ये भृम इतना यकीनी
और है सांसों की माला से बँधा
तुमको भुलाने की कोशिश में मैं
देना क्यों चाहता हूँ खुदको भुला
मैं खोज नही पाता खुदको जहां
देखने पर मैं पाता हूँ तुमको वहाँ।
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कवि द्वारा इस कविता को पूर्ण रूप से स्वयं का बताया गया है। ओर हमारे पास इसके पुक्ते रिकॉर्ड्स है। कवि ने स्वयं माना है यह कविता उन्होंने किसी ओर वेबसाइट पर प्रकाशित नहीं करवाई है।
लेखक: ध्रुव मिश्र
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