फिसलने लगे क्यों ज़बान सभी के
फिसलने लगे क्यों ज़बान सभी के
भटकने लगे क्यों ध्यान सभी के I
किसी पर नहीं आज होता यकीन
बदलने लगे है ईमान सभी के I
अदा कर न पाए एहसान जिनके
मिटा हम रहे वो निशान सभी के I
खुदा की इनायत घर थे सलामत
वही आज उजाड़े मकान सभी के I
खफा लोग हमसे हुए क्यों न जाने
खबर बन गयी है बयान सभी के I
रसद को तरसते रहे उम्र भर जो
खुली आज उनके दुकान सभी के I
कदम थे अभी चार बाकी सफ़र के
गयी आह बन ये थकान सभी के I
नहीं था पता जिंदगी चीज क्या है
नहीं काम आये है ज्ञान सभी के I
दिखे ख्वाब ऊँचे इस आसमा से
चमन में बना है मचान1 सभी के I
———–
कवि द्वारा इस कविता को पूर्ण रूप से स्वयं का बताया गया है। ओर हमारे पास इसके पुक्ते रिकॉर्ड्स है। कवि ने स्वयं माना है यह कविता उन्होंने किसी ओर वेबसाइट पर प्रकाशित नहीं करवाई है।
लेखक: राकेश मौर्य
इस कविता के बारे में अपने विचार comment करके हमें ज़रूर बताएं और अपने साथियों तक इसे अवश्य पहुंचाए ।
और हिंदी अंश को विजिट करते रहें।
_________________
अपनी कविता प्रकाशित करवाएं
Mail us on – Hindiansh@gmail.com