कविता – प्रतीक्षा | Pratiksha

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कविता – प्रतीक्षा

हुआ था वनवास श्री राम को,
जिसमें थी माता कैकेई की इच्छा ।
परिजन -पुरजन कर रहे थे,
उनके के लौटने की प्रतीक्षा ।
प्यासे नैनो को चाहिए थी बस ,
प्रभु दर्शन की भिक्षा ।।

उधर धर्मात्मा भरत को हुई,
जन्म जन्म की ग्लानि,
पाने को सीप बैचेन जैसे,
स्वाति नक्षत्र का पानी ।।

सोचते मेरे कारण,
प्रभु भटके वन – वन ।
प्रतिक्षा के अतिरिक्त ,
नही कुछ और निवारण ।।

माता कैकेई को भी अब, 
कुछ दुःख नहीं था कम ।
अब कौन लाके देगा उनको,
राम रूपी मरहम ।।

लक्ष्मण पत्नी उर्मिला करती
प्रिय की प्रतिक्षा पल-पल।
वचन विवश करती भी नही बेचारी,
अपने नैनो को सजल ।।

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कवि द्वारा इस कविता को पूर्ण रूप से स्वयं का बताया गया है। ओर हमारे पास इसके पुक्ते रिकॉर्ड्स है। कवि ने स्वयं माना है यह कविता उन्होंने किसी ओर वेबसाइट पर प्रकाशित नहीं करवाई है।

लेखक:  सुमित कुमार

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