जाँ हथेली रख सफ़र करने लगे कविता
जाँ हथेली रख सफ़र करने लगे
मौत का था खौफ़ हम डरने लगे I
भीड़ में इस तरह तन्हाँ हम क्यों हुये
सब है पीछे हम आगे चलने लगे I
दिन बीता न जाने कब शाम हुयी
दूर राहों में दीये जलने लगे I
चारों दिशाओं से आवाज आयी
भ्रम टूटा गैर भी अपने लगे I
गुनगुनाने लगी शाम सुहानी
दिल से निकली ग़ज़ल हम लिखने लगे I
मै देखू चाँदनी वो देखे मुझे
देखते ही देखते खोने लगे I
ख्वाब यूं ही आकर आंखों में मेरे
ले गयी नींदे रात जगने लगे I
बेवफाई के सबक हम सीखकर अब
ये कदम मेरे क्यों बहकने लगे I
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कवि द्वारा इस कविता को पूर्ण रूप से स्वयं का बताया गया है। ओर हमारे पास इसके पुक्ते रिकॉर्ड्स है। कवि ने स्वयं माना है यह कविता उन्होंने किसी ओर वेबसाइट पर प्रकाशित नहीं करवाई है।
लेखक: राकेश मौर्य
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